Wednesday, November 25, 2009

"हेलो मर जाओगे"

कहते है इन्दौर दिल वालो का शहर है.यहाँ कि हवाओ मे अपनेपन की महक है.यहाँ  हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की चिन्ता करता है,उसके लिये फ़िक्रमन्द है.अब ये ही लीजिये ,एक बार मे डाक्टर को दिखाने के लिये समय लेने गयी.समय मेरी सुविधा के अनुसार नही मिल रहा था तो मे बाहर आ गयी .मेरे पीछे पीछे एक सज्जन जो वही बैठे सारी बाते सुन रहे थे आये और कहने लगे "भाभीजी आज डाक्टर साहब जो समय दे रहे है वही ले लीजिये फ़िर अगर आप आ सके तो ठीक है नही तो मत आइयेगा".अब बताइये बिना जान-पहचान के इतनी फ़िक्र करते हुए लोग इन्दौर के अलावा कही मिलेगे?और जब ऐसे लोगो से आपका सम्पर्क होता है तो दूसरो की फ़िक्र करना आप का भी फ़र्ज़ बन जाता है.पर कभी-कभी ये फ़िक्र और चिन्ता इतनी हावी हो जाती है कि कब चिन्ता गुस्से मे बदल जाती है,और कब गुस्सा झिड्की से अधिक कठोर होकर फ़ूट पडता है पता ही नही चलता.
इन्दौर का मालवा उत्सव बहुत प्रसिद्ध है.बात करीब ४-५ वर्ष पुरानी है.पतिदेव की बहुत इच्छा थी मालवा उत्सव देखने जाने की.वैसे तो मॆ अपनी शान्त सी कालोनी की सुहानी शाम छोड कर कही जाना, खास कर भागते ट्राफ़िक,क्रत्रिम रोशनी और शहर की चिल्लपो मे जाना पसन्द नही करती .परन्तु उस दिन मैंने मन बना ही लिया.
मालवा उत्सव गाँधी  हाल मे चल रहा था .कृष्णपुरा पुल पार करके आगे बडे ही थे कि नज़र आगे मोटर बाइक पर बैठी लडकी पर पडी.लाल रंग  पर सुनहरी लाइनो वाला सूट और उस पर लाल सुनहरे काम वाली चुन्नी .अरे ये चुन्नी तो काफ़ी लम्बी है नीचे लटकती चुन्नी पर नज़रे फ़िसलती चली गयी और छोर तक पहुचते दिल धक से रह गया.चुन्नी का एक सिरा पिछ्ले पहिये की चेन के करीब बार-बार टकराता और दूर हट जाता.अरे अगर फंस गया तो? उसे बोलूं  पर बोलूं  कैसे?गाडी के कांच  तो बन्द है .शहर की हवा मे धूल और धुँआ इतना है कि घर पर किये मेकअप पर धूल की एक परत चढ जाती है.ये तो चिढते भी है इतनी गर्मी मे भी तुम खिड़कियाँ बन्द रखती हो. पर थोडी गर्मी मुझे सुहाती है.
कार के कांच  खोलते -खोलते वह मोटर बाईक आगे निकल गयी.लगता है नई -नई शादी हुई है,लडकी आगे को झुक कर बैठी है पीछे खुद का ही ध्यान नही है.दोनों बातो मे व्यस्त है या लड्की का ध्यान भी सडक पर है मे कुछ तय नही कर पायी.ध्यान आया जब हम मोटर बाइक पर चलते थे,मेरा पूरा ध्यान सडक पर होता था जैसे अगर नज़र हटाई तो कोई दुर्घट्ना हो जायेगी.
इन्दोर मे एम जी रोड पर शाम को साढे सात बजे एक दुपहिया वाहन का कार से पीछा करना आसान तो नही हॆ .मन मॆ अजीब से ख्याल उठे,दुपट्टे गाडी मे फंसने  से हुए कई हादसे जेहन मे कौंध  गये.नही-नही उसे तो बताना ही पडेगा,अरे चुन्नी कभी भी पहिये मे लिपट सकती है.पतिदेव भी अपनी जिम्मेदारी समझ कर गाडी की गति बढा कर बाईक का पीछा कर रहे थे.अचानक चौराहे पर उन्होने गाडी को जोरदार ब्रेक लगाये,साईड से एक गाडी अचानक कार के सामने आ गयी थी .विचारो ने तुरन्त करवट ली,क्या करते हो?ध्यान से चलो.
अब उस लडकी की फ़िक्र अपने ऊपर  गुस्से मे बदल गयी.मुझे ही क्या पडी हैचिन्ता करने की?इतने लोग भी तो है जो आ जा रहे है.क्या इनमे से कोई भी उसे नही बता सकता?क्या उन्हे उसका दुपट्टा नही दिख रहा?मुझे भी परायी पीर मे जान हलकान करने की बुरी आदत है.अब इन्हे रोकना नामुमकिन है.अब तो ये उसे बता कर ही दम लेगे .अभी अगर एक्सीडेन्ट हो जाता तो?मर ही गये थे .पर अब इन्हे कैसे समझाउं ? कि उनकी छोडो अपनी सोचो, आखिर ये भी तो इसी इन्दोर के हवा पानी मे रहते है.
ये दिमाग भी अजीब चीज है एक सेकेन्ड से भी कम समय मे इसमे इतने विचार आ जाते है,अच्छे भी और बुरे भी .हो सकता है अगल-बगल मे चलने वाले सभी लोग इस व्यस्त सडक पर अपने को सुरक्षित  पहुचाने मे ही लगे है.किसी का ध्यान उस ओर गया ही नही है.पर मेरा ध्यान तो जा चुका है ,अब भी अगर मे उसे आगाह नही करती और अगर यदि चुन्नी पहिये मे उलझ गयी तो? उस लड्की के गले मे फ़न्दा बन गयी तो? वो गिर गयी तो?इतना ट्राफ़िक ,तेज़ गति से चलती गाडिया,तेज़ गति से चलती गाडी से गिरना,और..............नही-नही मुझे उसे बताना ही पडेगा ,अब भी अगर मैने उसे नही बताया तो जिन्होने उसे नही देखा वो तो निर्दोष है पर मै मेरी अनदेखी से किसी की जान पर बन आये इस ख्याल ने ही मुझे बैचेन कर दिया.
आखिर एक और चौराहा पार कर थोडे आगे बढ्ते ही उस गाडी के समीप पहुँच गये .अब तक दिमाग मे विचारो का पुलाव पक गया था.ढेरो विचारो का घालमेल हो गया था.उनमे फ़िक्र थी,किसी का भला करने की इच्छा थी,तो भलाई के इस विचार पर खीझ भी थी.एक अच्छे नागरिक होने का भाव था,तो इस जिम्मेदारी से उपजे तनाव का गुस्सा भी था.पर उस लडकी को आगाह करने का विचार अब भी अन्य सभी विचारो पर हावी था. कार मोटर-बाईक के बगल मे पहुचते ही मैने जोर से आवाज़ लगायी,"हेलो मर जाओगे" और हाथ से चुन्नी कि और इशारा किया.लड्के ने तुरन्त बाईक को ब्रेक लगाया,और घूर कर मेरी और देखा.पतिदेव ने कार की रफ़्तार तेज़ कर दी,और भुनभुनाये,ऐस कहने की क्या जरूरत थी?सिर्फ़ चुन्नी का कह देना था.अब सारी फ़िक्र तनाव और गुस्सा पतिदेव पर फ़ूट पडा .अपनी चिन्ता किये बगैर कब से पीछाकर रहे हो अगर कुछ हो जाता तो?अब जो दिमाग मे चल रहा था वो ही जुबान से निकल गया,कोइ जान बूझ कर तो नही बोला ना .
अब तक गाडी गाँधी  हाल तक पहुँच  गयी थी.गाडी की गति धीमी हुई तभी वही बाईक ओवर टेक कर के आगे बढी,पीछे बैठी लडकी ने घूर कर मेरी और देखा.
मालवा उत्सव मे मेरे ही शब्द मेरे कानो मे गूंजते  रहे,"हेलो मर जाओगे"जिस पर मुझे हंसी  भी आती रही और गुस्सा भी.
कविता. 

Tuesday, November 17, 2009

विरासत

गर्मियों की एक दोपहर गर्म हवाओं के थपेड़ों को घर में घुसने से रोकने के लिए दरवाजे खिड़की बंद कर बैठी थी ,कि दरवाजों कि संध को रास्ता बना कर एक आवाज़ भीतर तक घुस आयी ,घी ले लो -घी लेलो.
अलसाई दुपहरी में ये कौन आ गया ,बुदबुदाते हुए थोड़ी सी खिड़की खोल कर बाहर झाँका ,तो हाथ में एक छोटी सी मटकी पकडे ,लहंगा पहने ,एक औरत को खड़े देखा.
बाई सा घी ले लो.चोखो घी है, हाँथ को बन्यो ,उसने कहा.
घी तो चाहिए ही नही ,इसलिए उसे टरकाने कि गरज से कहा, नही हम घी नही लेते घर पर ही बनाते है,अभी जाओ.
अरे बाई देखि लो घर को बन्यो चोखो घी है.पैसा कि जरूरत है काम आयेगो.
अब तक मेरा आलस छूट गया था इसलिए उस के बारे में और पता करने कि गरज से मैंने पूछा कहाँ से आयी हो?
राजस्थान से आयी हूँ बाई .यहाँ ढोर चराने आए है .एक बार घी देख लो ,चोखो लगे तो ले लीजो.
उसके सरल आग्रह को मैं इनकार न कर सकी और गर्म थपेड़ों कि परवाह न करते हुए दरवाजा खोल के बाहर आ गयी.मटकी में देखा करीब एक किलो घी होगा .कितने का है ?नही लेना था फिर भी पूछा .
एक सेर है पचास और दस रूपया दे दीजो। 
अब चौकाने कि बारी मेरी थी एक किलो घी आधा किलो कि कीमत में ? पर ये तो एक किलो है,इसकी कीमत तो एक सौ बीस रुपये होनी चाहिए.गाँवों में आधा किलो को एक सेर कहते है इसलिए ये कम कीमत लगा रही है.पर उसकी सरलता ने मुझे मोह लिया था ,मैं नही चाहती थी कि वो ठगी जाए इसलिए कहा ,ये तो एक किलो है इसकी कीमत कम क्यो बता रही हो ?पर मेरी खड़ी बोली उसके ज्यादा पल्ले नही पड़ी,तब अपनी भाषा को तोड़-मरोड़ कर उसे समझाया इतने घी के सौ ऊपर बीस रूपया लेना.
अब उसे कुछ समझ आया तो बोली ,ना बाई म्हारी सास ने गाँव से आते समय बोल्यो थो ,सहर में नी मिले तो भूखो राइ ले जो पण बेईमानी को पैसो मत कमाजो ,यो घी तो एक सेर है नि तुम तो पचास ऊपर दस रूपया दी दो,इतना कहते हुए उसने वो घी कि मटकी मेरे हाथ में पकड़ा दी.
और मैं अवाक् खड़ी ये समझने की कोशिश करती रही कि ६० रुपये में घी के साथ-साथ किस सरलता से संस्कारों कि कितनी बड़ी विरासत भी वो मुझे दिए जा रही है. 

Sunday, November 8, 2009

छुट्टी

एल टी सी लेने का समय दिसम्बर तक ही है.अभी कहीं  नही गए तो निरस्त हो जायेगी,पति ने कहा तो वो सोच में में पड़ गयी.पिछले तीन सालों से कहीं घूमने नही जा पाए,क्या करे क्या न करे.जाने में घर की व्यवस्था करने में कोई दिक्कत नही है पर छुट्टी लेना बहुत मुश्किल काम है.फिर भी अब सोच लिया अभी समय ठीक है बच्चों की एक्साम भी नही है,ऑफिस में भी ज्यादा लोड नही है,६-७ दिन तो निकाले  जा सकते है,रिजर्वेशन भी इत्तफाक से मिल गया.उसने लीव ऍप्लिकेशन भरी कारण क्या लिखूं सोचते सोचते भी उसने सही लिखा,गोवा घूमने जा रहे है .
सुनते ही बॉस की भ्रुकती  तन गयी भी ये कोई समय है,आप को सोच समझ कर प्रोग्राम बनाना चाहिए आदी आदी.
उसने कहा भी मैंने पिछले तीन महीनों से कोई छुट्टी नही ली है पिछले दो सालों से सी एल इनकैश करवा रही हूँ ,यहाँ तक की बीमार होने पर भी कभी छुट्टी नही ली .पर बॉस ने साइन नही किया तो नही किया,थोडी बहस भी हुई आख़िर शर्त रखी गयी की इन छुट्टियों में आपका काम कौन और कैसे सम्हालेगा इसकी रूपरेखा बना कर जाइये,ठीक है ये भी सही सोच कर उसने हाँ कर दी.
इस बारे में पतिदेव को बताया तो बोले तुमने कहा क्यों की गोवा घूमने जा रही हो बोलना  था भाई के घर कार्यक्रम है ,तारीख निश्चित हो गयी है इसलिए जाना जरूरी है.सही बात बता कर कभी छुट्टी मिलती है .
खैर जो होना था सो हो गया .
पिछले दिनों एक और सहकर्मी भी तो घूमने गयी थी उससे पूछा तो उसने बताया मैंने तो कहा था की "मौसी सास के यहाँ शादी है उसके बाद कुलदेवी के दर्शन को जाना है" तूने सच क्यों कहा ?आजकल सच बोलने का जमाना नही रहा.
दूसरे दिन सारी रूपरेखा ले कर बॉस के ऑफिस में गयी ऍप्लिकेशन दी रूपरेखा दी ,मुंह  बनाते हुए उन्होंने साइन किया ,उठते  हुए उसकी नजर बॉस के पीछे टंगी गांधीजी  की फोटो पर गयी ,और वह एक उन्सास लेते हुए कमरे से बाहर निकल गयी .कविता वर्मा     

Monday, November 2, 2009

तसल्ली


अरे बेटा यहाँ आ भैया को चोट लग जायेगी. कहते हुए मांजी  ने मिनी को अपनी गोद मे खींच  लिया. मम्मी के पास भैया है ना ,थोडे दिनो मे वो मिनी के पास आ जायेगा,उसके साथ खेलेगा, मिनी उसे राखी बांधेगी  मांजी के स्वर मे पोते के आने की आस छ्लक रही थी.नेहा को भी बस उसी दिन का इंतजार  था.


"बेटी हुई है" नर्स ने कहा,तो मांजी  का चेहरा बुझ गया.नेहा से तो उन्होने कुछ नही कहा पर उनके हाव-भाव ने काफी कुछ कह दिया. मिनी से उनका बात करना बन्द हो गया. नेहा अनजाने ही अपराधबोध से ग्रस्त हो गयी.विनय ने भी तो कुछ नही कहा,बस चुपचाप उसकी हर जरूरत का ध्यान रखते रहे.मांजी  की चुप्पी देखकर विनय की चुप्पी तुड्वाने का उसका साह्स नही हुआ.
अस्पताल से घर आकर दरवाजे पर ठिठकी कि शायद मांजी  घर की लक्ष्मी की आरती उतारे,पर घर मे पसरी निशब्दता देखकर चुपचाप अपने कमरे मे चली गयी.
मिनी छोटी बहन के आने से अचानक बडी हो गयी. उसने अपने आप को गुड़ियों के संसार  मे गुम कर दिया,वहां बोझिलता कम थी.
विनय आजकल अपने काम मे ज्यादा ही व्यस्त थे, उनसे बात करने का समय ही नही मिलता था.घरवालो की खामोशी ने उसके दिल-दिमाग को अजीब सी बॆचेनी से भर दिया.रात मे सोते-सोते अचानक नींद खुल जाती,दिमाग मे कभी बहुत से ख्याल गड्मग होते या कभी सोचने पर भी कोइ ख्याल नही होता.
इसी बेचेनी मे एक रात उसने नींद मे करवट बदली तो अधखुली आँखों से विनय को छोटी बिटिया के हाथ को अपने हांथों मे थामे स्नेह से उसे निहारते पाया.उसे लगा कमरे मे उजास भर गया,घर मे घंटियाँ  बजने लगी,उसकी बेचेनी अचानक खत्म हो गयी,उसके बाद वह चैन से सोयी.

Sunday, November 1, 2009

एक सुबह


रविवार की सुबह, हलकी गुलाबी ठण्ड एक बार तो सोचा एक झपकी और ले लूँ .लेकिन रविवार की सुबह जैसी सुकूनदाई सुबह नही होती ये सोच कर सारा आलस रजाई के साथ झटक के दूर फेंका और उठ खड़ी हुई.खिड़की से झाँका तो नव आदित्य को भी कुहासे के लिहाफ को परे खसका कर उठते देखा .मुझे देखते ही उसनेआँखे मिचका कर गुलाबी किरणों की मुस्कान मुझ पर फेंकी,और जैसे अपने साथ अठखेलियाँ करने का आमंत्रण दिया। अब भला इस आमंत्रण को मैं कैसे ठुकराती,धीरे से दरवाजा खोला और बहार आयी तब मुझे इस मुस्कराहट का राज़ समझ में आया.शरद ऋतू में ठंडी बयार की पिचकारी लेकर वो जैसे मेरे स्वागत में ही खड़ा था.बाहर आते ही सारोबार कर दिया.पर अब भीतर भागने से भी क्या होता,वैसे भी पीठ दिखाना मुझे पसंद नही है.मैंने भी सोचा ठीक है आज तुम ही खुश हो लो.मेरा हाल देख कर अब तक बाल भानु अट्टहास कर उठा .और उसकी हँसी तरुण कोपलोंपर मोतियों की तरह बिखर गयी. इतने सारे मोती कैसे चुनु,सोच ही रही थी कि चुनमुन गिलहरी ने चू चू कर मेरा धयान खीचा.मेरे ही किचेन कि तान पर घर बनाया है और मुझे ही आँख दिखाती है,पर फिर सोचा इसने कहाँ मैंने ही इसके आजाद परिवेश पर कब्जा कर लिया और बारह इंच जगह देने में भी इठलाती हूँ कितना अंहकार,छि-छि .पर अभी इतने विचारों के लिए फुरसत कहाँ थी गौरयों के झुंड ने आकर मुझे लताडा,रोज़ तो काम की जल्दी में भूल जाती हो कम से कम आज रविवार को तो समय से कुछ खाने को दो,रोज़ रोज़ इधर-उधर घूम कर खाना इकठ्ठा करने कि हमारी छुट्टी है.ठीक है बाबा ,चिल्लाओ मत,कहते हुए जल्दी से चावल और ज्वार के दाने उनके लिए डाले ,पानी भरा, और वो ,बिना मेरी और देखे अपनी सखिओं के साथ बतियाते हुए नाश्ते में मशगूल हो गयी. अब मेरा ध्यान फिर आसमान पर गया और देखो तो सूरज मुझे चिढा रहा था हा हा हा तुम तो फुरसत कि सुबह बिताना चाहती थी ना .मैंने मुस्कुरा कर उसकी तरफ़ देखा ,एक नज़र गपियाती चिडियों पर डाली नीम पर फुदकती गिल्हारिओं को देखा ,एक एक कर ओस कि बूंदों को चुनती किरणों पर नज़र डाली एक संतुष्टि कि साँस ली और चाय बनाने अन्दर चली गयी अब उसे कैसे समझाऊ जो सुकून इस काम में था उसके आगे तो सारे जहाँ कि फुरसत बेकार है.वैसे भी कई काम करने है ये सब समझाने का समय नही है मेरे पास.अब आप ये समझाना चाहे तो कल कि सुबह कोशिश कर लीजिये.

नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जी...