कल फेस बुक पर दशहरा मेले का एक फोटो डाला बहुत सारे लोगों ने इसे पसंद किया। अपने बचपन को याद करते हुए बचपन के मेलों को याद किया। कुछ लोगों ने तुलना कर डाली उस समय के मेले , उनकी बात ही कुछ और थी , इसी बात ने सोचने को मजबूर कर दिया।
उस समय के मेले मतलब बीस पच्चीस साल पहले के मेले जिनमे हिंडोले थे ,चकरी वाले झूले थे। गुब्बारे चकरी वाले ,प्लास्टिक के मिट्टी के खिलोने वाले ,मिट्टी के बर्तन , नकली फूल ,छोटे मोटे बर्तनों वाले, सस्ते कपड़ों वाले ,खाने पीने की दुकानों में जलेबी इमरती मालपुए वाले ,गुड़िया के बाल ,सीटी, कार्ड बोर्ड पर रंगीन पन्नी लगा कर बनाये गयीं तलवार ,गदा, धनुष बाण वाले। यही सब तो था।
आज भी कमोबेश वही सब है दूरदराज़ के गावों में तो बहुत कुछ नहीं बदला , बड़े शहरों के पास वाले गाँवों में आधुनिकता का असर पड़ा है लोगों की रुचियाँ बदली हैं इसीलिए मेलों का स्वरुप भी बदला है। यही बात शहरों के मेलों के साथ है।
माल संस्कृति के चलते शहरी बच्चों में मेलों का बहुत ज्यादा आकर्षण नहीं रह गया है। मॉल में गाहे बगाहे कई इवेंट्स होते रहते हैं जिनमें बच्चे मेलों की तरह ही शामिल होते हैं झूले लगाने की जगह वहाँ नहीं है उनकी जगह हवा भरी जंपिंग माउस ,छोटे से टब में चलती नाव, रेसिंग कार आदि ने ले ली हैं जो सारे साल उपलब्ध हैं।
कपडे सिर्फ त्योहारों पर खरीदे जायेंगे वाली बात अब नहीं रही। वैसे भी ब्रांडेड कपडे जूते पहनने वाली पीढ़ी मेलों की दुकानों से कपडे खरीदने से रही और तो और उनके माता पिता जिन्होंने पूरा बचपन मेलों से खरीदे कपडे पहन कर बिताया होगा वे भी ऐसे कपडे मेलों में देख कर नाक भोंह सिकोड़ लेंगे , इसलिए इन दुकानों का तो मेलों से बाहर होना निश्चित ही था। मिठाई के बारे में पसंद अब बदलती जा रही है इसलिए जलेबी, इमरती बाहर ,वैसे भी लोग खुद की साफ़ सफाई के बारे में सजग हुए हैं इसलिए धूल भरे माहौल में बिकने वाली मिठाइयाँ खाना पसंद नहीं करेंगे हाँ इसकी जगह चाट ,भेल जैसी चीज़ें पसंद की जाती हैं ये पूरी तरह साफ़ सुथरी तो नहीं कही जा सकती लेकिन फिर भी कुछ हद तक , फिर जबान के चटकारे के सामने सब ताक पर।
कुल मिला कर देखा जाये तो मेले आधुनिक हो गए हैं वृहद हो गए हैं , उनमे वही परिवर्तन आ रहे हैं जो लोगों को पसंद हैं फिर क्या है ऐसा जिसके लिए लोग नॉस्टेलजिक हो जाते हैं ?
वह है मेलों में मौजूद अजनबीपन। जी यही वह बात है जो आधुनिक हो रहे मेलों में है जो उस जमाने के मेलों में नहीं थी और जो लोगों के सर चढ़ जाती है। आपके बगल में खड़ा परिवार शायद शहर के दूसरे कोने से आया हो और आप उसे नहीं जानते , दो घंटे मेले में घूमने के बाद भी आपको शायद ही कोई रिश्तेदार या परिचित दिखाई देता है। इस बड़े से मेले में आपका छोटा सा परिवार कुल जमा तीन चार लोग आपमें अकेलापन भर देते हैं। ऐसे में अगर आपके बगल में कोई संयुक्त परिवार खड़ा हो या कुछ लोग जो अपने ढेर सारे रिश्तेदारों या मित्रों के साथ आये हों हंसी ठिठोली चल रही हो तो आप एक सौ एक फुट के रावन के बजाय उनकी और ही देखते रह जाते हैं।
मेलों से आकर लोग अपने ज़माने के मेलों को याद नहीं करते बल्कि अकेलेपन से घिर कर उस अपनेपन को याद करते हैं और इसीलिए उस ज़माने के मेले बहुत याद आते हैं।
कविता वर्मा