Monday, June 30, 2014

नेपथ्य

नेपथ्य 
तेल चाल उखड़ी सांसे थकित तन और डूबता मन लिए वह चला जा रहा था कहाँ खुद भी नहीं जानता। उदासी ज्यादा गहरी थी या अन्धकार ये सोचने का ध्यान कहाँ था। आगे रास्ता है या नहीं ये समझने की कोशिश ही कहाँ की बस चलता रहा मानो मन की गति को मात देने भाग रहा हो बिना रुके बिना सोचे। मन छले जाने से व्यथित था या कुछ न कर पाने से ये भी तो नहीं पता। जीवन के झंझावातों से थक चुका था वह और अब तो उसके पैरों के नीचे से जमीन ही छीन ली गई थी। मन की गति ने थका दिया तो पैरों की गति अपने आप थम गई सामने अपार विस्तार सागर लहरा रहा था। लहरें किनारे पर सर पटक पटक ना जाने किस परेशानी को सुलझाने की कोशिश में लगी थीं।
किनारे खड़ा प्रकाश स्तम्भ पूरी ताकत से दूर तक रौशनी बिखेर रहा था वह वहीँ किनारे बैठ गया। लहरों पर पड़ती प्रकाश किरणे झंझावातों के कारण द्विगुणित हो कर ज्यादा चमक बिखेर रही थीं। बादलों की कालिमा के नेपथ्य में रोशनी की चमक कई गुना बढ़ कर ज्यादा दूर तक भटकों को राह दिखा रही थी।
इस विचार ने मानों उसके मन को प्रकाशित कर दिया।

Thursday, June 19, 2014

बलि

 आज ग्यारह तारीख हो गयी तनख्वाह नहीं मिली कर्मचारियों में बैचेनी थी धीमे स्वर में सुगबुगाहट फ़ैल रही थी लेकिन कोई खुल  कर सामने नहीं आ रहा था। विजया के मन में भी भारी उथल पुथल चल रही थी। आज सुबह ही उसने पति से कुछ पैसे मांगे थे जिसके बदले उसे झिड़की सुनने को मिली थी और मिले थे जरूरत से काफी कम रुपये एक एहसान सा जताते हुए। उसका मन विद्रोह कर उठा इच्छा तो हुई पैसे वापस कर दे लेकिन उसके बाद जो तूफ़ान उठ खड़ा होता उसे टालना ही ठीक था इसलिए चुपचाप रख लिए। 
हमेशा के इस अपमान से छुटकारा पाने के लिए ही वह नौकरी करने निकली थी सोचा था जब नौकरी करेगी तो उसके हाथ में खुद के कुछ पैसे होंगे और वह सम्मान से जीने की उम्मीद तो क्या करती लेकिन हाँ उस हद तक तिरस्कार से शायद बच सकेगी। 
 लेकिन इस नौकरी में जहाँ लगभग सभी महिला कर्मचारी है उनको उनकी मेहनत का पैसा देने में भी कोताही। 
छुट्टी से कुछ ही पहले एक एक को बुला कर तनख्वाह दी गयी लेकिन वह तय शुदा से काफी कम थी। विजया  के मन में असमंजस गहरा गया क्या करे इतने इंतज़ार के बाद मिले इन पैसों पर अपने सम्मान को कुर्बान कर के इन्हे रख ले या अपने आत्म सम्मान पर कुछ दिनों के लिए अपनी सहूलियतों की बलि चढ़ा दे ? 
कविता वर्मा 

Saturday, June 14, 2014

सबसे बड़ी ख़ुशी

पापा आज फिर आप मेरे लिये उड़ने वाला फाइटर प्लेन नहीं लाये नन्हे रोहित ने ठुनकते हुए कहा तो छोटी मुनिया कैसे पीछे रहती वह भी पापा के पैरों से लिपट कर गुड़िया ना लाने लिए उलाहना देने लगी। शशांक ने बेबसी से अपनी पत्नी की ओर देखा। अपने नन्हे बच्चों की छोटी छोटी ख्वाहिशे पूरी न कर पाने का दर्द उसकी आँखों में झलक आया था। शोमा क्या कहती समझती तो वह भी थी शशांक का दर्द उसकी मजबूरी। अचानक नौकरी छूट जाने की वजह से जीवन की गाड़ी पटरी से उत्तर गयी थी लेकिन नन्हे बच्चों को कैसे समझाया जाये ?शशांक सारा दिन दफ्तरों की खाक छानता शाम को जब उदास सा घर लौटता बच्चों की मासूम इच्छाए पूरी न कर पाने का दर्द नौकरी न मिलने के दर्द से मिल कर कई गुना हो जाता।
शशांक ने मुंह हाथ धोने के बहाने अपना दर्द धोने की कोशिश की और पत्नी से रोहित और मुनिया को तैयार करने को कहा।
"लेकिन कहाँ ले जाओगे उन्हें ?और अभी इतना खर्च कहाँ से करोगे पता नहीं अभी और कितने दिन …। "कहते कहते शोमा ने बात अधूरी छोड़ दी।
ये हमारे जिंदगी के संघर्ष हैं लेकिन बच्चों को खुश रखने की जिम्मेदारी मेरी है पिता हूँ मैं उनका। उन्हें खुशियां देना मेरा फ़र्ज़ है और खुशियां पैसों से नहीं खरीदी जाती। तुम उन्हें तैयार तो करो।
दोनों बच्चों का हाथ थामे शशांक घर से निकल गया।
बच्चों को दूर तक घुमा कर ढेर सारी बतकही करके जब वे वापस लौटे रोहित चहक रहा था ;पापा अब से हम रोज़ शाम को ऐसे ही घूमने चलेंगे।
पापा के साथ बिताया समय रोहित और मुनिया की आँखों में संतुष्टि बन कर चमक रहा था तो बच्चों को खुश करने की ख़ुशी उनके अभाव के साथ शशांक की आँखों में मोती बन कर झिलमिला रही थी।

हिस्सा ( लघुकथा )

 
मैरिज हाल के बाहर लगभग रोज़ ही जूठन का ढेर लगता था। आसपास की बस्तियों के बच्चे बूढ़े अौरतें बाहर खड़े हो कर इंतज़ार ही करते  थे कि कब अंदर खाना पीना शुरू हो कब ख़त्म हो और कब वे अपनी क्षुधा शांत करने के लिए जूठन पाएं जो कि उनके लिए बहुत बड़ी नेमत थी। जूठन के लिए यदा कदा उन लोगों में झगड़ा मारपीट तक हो जाती;  इसलिए जिसके हाथ जो आ जाता उसे लेकर वहां से दूर भागता ताकि ठीक से खा सके। 
वह बच्चा उस दिन शायद बहुत भूखा था लेकिन अकेला था बहुत कोशिशों के बाद भी वह भीड़ को चीर कर खाने के लिए कुछ नहीं जुटा पाया तो रुआँसा सा भीड़ से दूर गली के कोने पर जा कर खड़ा हो गया और ललचाई दृष्टी से छीना झपटी करते लोगों को देखने लगा।  एक बारगी तो लगा कि उस को आज भूखे ही रहना होगा। भगवान के इंसाफ पर शक होने लगा एक बेबस की भूख के लिए कोई जुगाड़ नहीं। तभी गली के छोर से दो लड़के हाथ में खाने का पैकेट लेकर गुजरे उनका पेट भर चुका था उन्होंने बचा हुआ खाना गली में फेंक दिया। वह बच्चा तुरंत उस पर झपटा और मिटटी पड़े खाने को वहीँ से खाने लगा। 
एक बारगी भगवान के इन्साफ पर यकीन हुआ  कि हर भूखे के लिए भोजन मुक़र्रर किया है ये बात अलग है  कि लोग दूसरों के हिस्से पर कब्ज़ा कर उसे बर्बाद कर देते हैं इसलिए कुछ लोग भूखे रह जाते हैं।  
कविता वर्मा 

नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जी...