Thursday, November 27, 2014

गहरे हैं रंग ' कैनवास पर प्रेम ' के


विमलेश त्रिपाठी जी का उपन्यास 'कैनवास पर प्रेम ' के नाम ने ही मुझे आकर्षित किया था। नाम से कहानी का जो कुछ अंदाज़ा हुआ था वो ठीक ठीक होते हुए भी उससे बहुत अलग भी था। 
कहानी अपने आप में ढेर सारी त्रासदियों घटनाओं दुविधाओं और दुश्चिंताओं को समेटे एक सम्मोहक माया जाल सा बुनती है जिसमे आप कभी कहीं खो जाते है तो कभी किसी पल पर ठिठक कर उसे महसूस करते रह जाते हैं। 
कहीं एक बच्चे के दुःख से उपजते कलाकार को धीरे धीरे बड़ा होते देखते हैं तो कभी उस कलाकार को मौत की ओर कदम बढ़ाते देख काँप जाते हैं इस आशंका में कि ये कहानी पूरी होगी भी या नहीं। कई बार कहानी के अधूरा रह जाने की आशंका जल्दी जल्दी पढ़ कर तसल्ली कर लेना चाहती है लेकिन यकीन मानिये कि उस पल की कशिश आपको एक साथ कई पन्ने पलटने से रोक भी लेती है। 
इसमें एक मासूम से प्यार की दास्ताँ है ,तो एक ऐसे दोस्त की कहानी जो बिना कहे सब समझ जाता है तो बिना पूछे सब कर भी जाता है। दोस्ती का ऐसा विश्वास है कि पढ़ते पढ़ते रुक कर आप अपने दोस्तों की फेहरिस्त पर एक नज़र डाल कर उनमे एक ऐसा दोस्त जरूर ढूंढेंगे। 
वैसे जिंदगी में कई लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हे हम अपना दोस्त नहीं कहते हैं लेकिन वे हमारे दोस्त से शुभचिंतक होते हैं। ऐसे लोगों की मौजूदगी ने इस कहानी में मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया है। 
प्यार की कशिश तो शायद इसके अधूरे रह जाने में ही है लेकिन अधूरे प्यार के बीते लम्हों के साथ एक पूरी जिंदगी जी जा सकती है। 
कहानी उलझे पारिवारिक ताने बाने के साथ घरेलू क्रूरता असहायता और निस्पृहता के साथ एक आक्रोश , दया और लगाव पैदा करती है। सुदूर गाँव के खेतों में दौड़ते ,गाँव के बाहर किसी बूढ़े पेड़ के तले अचंभित कर देने वाले पलों को पीछे छोड़ अचानक कोलकाता जैसे बड़े शहर में आ जाती है और आप खेतों की मेढ़ पर ठिठके खड़े उसके वापस लौट आने की प्रतीक्षा ही करते रह जाते हैं। 
कहानी में लेखक और उसके कथाकार का द्वंद कहानी की गति धीमी कर देता है जिसमे कभी कभी तो कहानी खो सी जाती है और उसके सिरे  पकड़ने के लिए आपको  संघर्ष करना पड़ता है। लेखक का एक घरेलू व्यक्तित्व होना और अपने लेखन को जिन्दा रखने के लिए उसकी सतत जिजीविषा भी कहीं कहीं कहानी पर हावी हुई है लेकिन उस पर भी लेखक का संवेदनाओ से भरा इंसान होना और इन संवेदनाओ को लेखन से ऊपर रखना दिल छू  जाता है। लेखक  के व्यक्तित्व की दृढ़ता कई जगह कई रूपों में सामने आई है। 
कहीं कहीं हिंदी में भाषायी त्रुटियाँ खटकती हैं लेकिन बीच बीच में भावार्थ सहित सुन्दर बंगाली कविताओं की खनक इसे नगण्य कर देती है। 
कुल मिला कर कैनवास पर प्रेम शब्दों के साथ धीमे धीमे आपके अंदर उतरता है और अपने गहरे रंगों के साथ आपके दिलो दिमाग पर चित्रित हो जाता है।  
कविता वर्मा 

Sunday, November 16, 2014

देहरी


पढाई ख़त्म होते ही सोचा था कही अच्छी सी नौकरी कर के परिवार से रूठी खुशियों को वापस मना लाएगी लेकिन बिना अनुभव बिना सिफारिश कोई नौकरी आसानी से मिलती है क्या ?महीनो ठोकरे खाने के बाद आखिर उसने वह राह पकड़ी। कॉल सेंटर पर काम करने का कह कर शाम ढले घर से निकलती और पैर में घुँघरू बांधे अपने दुःख दरिद्र को पैरों से रौंदते अपने समय के बदलने की राह तकती। पैरों की हर थाप पर मन आशंकित रहता कहीं माँ बाबा को पता ना चल जाये नहीं तो वो जीते जी मर जायेंगे। मन खुद को ही समझाता कि वो जो कर रही है मज़बूरी में और परिवार के लिए ही कर रही है। लेकिन मन ही मानने को तैयार नहीं होता तो माँ बाबा कैसे समझेंगे यह आशंका सदा बनी रहती। मैं उन्हें कभी पता नहीं चलने दूँगी वह खुद से प्रण करती पर उनसे झूठ बोलने की कसक हमेशा बनी रहती। 
ऐसे ही एक शाम खबर आई बाबा को कुछ हो गया है होश ही कहाँ रहा उसे जैसी थी वैसे ही दौड़ पड़ी घर को। यहाँ उसने घुँघरू बंधे पैरो से देहरी लांघी वहाँ बाबा ने आखिरी हिचकी ली। वह वहीं थम गई समझ नहीं पाई उसने अभी देहरी लांघी है या बाबा ने उसी दिन दम तोड़ दिया था जिस दिन उसने घुँघरू बांधे थे। 
कविता वर्मा

नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जी...