Thursday, December 22, 2016

सूर्योदय सूर्यास्त और पीस पगोडा


 सुबह गाड़ियों के हॉर्न की आवाज़ों से नींद बहुत जल्दी खुल गई ये सब सुबह टाइगर पॉइंट पर जाने वाली गाड़ियाँ थीं जो कंचनजंघा पर सूर्योदय देखने जा रही थीं। हमने भी टैक्सी की बात की थी तो ड्राइवर ने कहा कोई फायदा नहीं है साब सुबह बादल हो जाते हैं कुछ दिखाई नहीं देता क्यों अपनी नींद ख़राब करते हैं। यह सुन कर हमने जाने  इरादा बदल दिया था पर अब नींद खुल ही गई थी और खिड़की से कंचनजंघा की चोटी दिख ही रही थी तो स्वेटर शॉल पहन कर खिड़की में खड़े हो गये। गहरे नीले जामुनी आसमान में धवल शिखर शान से सिर उठाये खड़ा था देखते ही देखते धुऐं की एक काली लकीर ने उसे ढँक लिया आसमान का रंग गहरे नीले से चमकीले नीले में बदलता जा रहा था और धवल शिखर कालिमा के आगोश में छुपता जा रहा था और देखते देखते पूरी तरह गायब हो गया। बहुत निराशा हुई सिर्फ इसलिए नहीं कि सूरज की पहली किरण से सुनहरी हुई चोटी को नहीं देख पाई बल्कि इसलिए भी कि जितना हम ज्ञान और जानकारी से लैस होते जा रहे हैं उतने ही कर्तव्यों से लापरवाह भी। लगातार चलती डीजल गाड़ियाँ उनके हॉर्न का शोर हमारा शोर धूल कचरा सुदूर प्राकृतिक स्थानों को भी इस कदर प्रदूषित कर चुका है इसके बाद कहाँ पनाह मिलेगी समझ नहीं आता। 
सुबह हो चुकी थी आसमान में धुएँ की धुंध थी अब सोने का मन ना था तो सोचा चलो सैर कर आयें बस तैयार हुए और पहुँच गये ओपन थियेटर वाले चौक में। सफाई चल रही थी लोग टहल रहे थे कुछ लोग बेंच पर बैठे थे। तभी एक व्यक्ति ने जेब से एक रोटी निकाली और बारीक़ टुकड़े कर बिखेर दिये। कबूतरों का एक झुण्ड तुरंत रोटी खाने पहुँच गया। इसके बाद तो  एक के बाद एक लोग आते गये और रोटी बाजरा बिस्किट के टुकड़े कर डालने लगे। थोड़ी ही देर में चिड़िया कबूतर और कुत्ते सभी अघा गये और उन्होंने खाना बंद कर दिया सफाई करने वालों ने बचा खाना झाड़ कर डस्टबिन के हवाले कर दिया। हमारी आस्थाएं भावनाएँ गलत नहीं हैं बस उनको नियंत्रित करने में कहीं चूक जाते हैं। 
टैक्सी टाइम से आ गई पहला स्थान था जापानी मोनेस्ट्री पीस पगोडा। मुख्य सड़क से काफी अंदर भव्य सफ़ेद स्तूप जिसपर बुद्ध की सुनहरी मूर्ति बगल के पहाड़ को टक्कर देते ऊँचे ऊँचे पेड़ साफ सुथरी खुली खुली जगह जिसमे करीने से लगा छोटा सा बगीचा अर्ध वृत्ताकार सीढियाँ और एक दूसरे से मुखातिब कंचनजंघा और बुद्ध। एक नज़र में प्यार हो जाये ऐसी जगह से। लेकिन यहाँ ढम ढम की आवाज़ क्यों ? शहर का शोर कुछ इस कदर कानों में भरा हुआ है कि कोई भी आवाज़ अब सहन नहीं होती। मोनेस्ट्री में अंदर गये भव्य मूर्ति के सामने एक बड़े ड्रम पर मंत्र उच्चार के साथ बीट दी जा रही थी एक बूढी महिला ने बैठने का इशारा किया फिर वहीँ रखे रैकेट जैसे ड्रम और ड्रम स्टिक उठाने का इशारा किया। बोर्ड पर एक मंत्र लिखा था जिसे पढ़ कर उसके अनुसार ड्रम बजाना था। थोड़ी ही देर में हम उस लय में आ गये और फिर उसमे ऐसे रमे कि थोड़ी देर के लिये सब कुछ भूलकर सिर्फ मंत्रमय ध्यान में पहुँच गये। उठने का मन तो नहीं था लेकिन अगले स्पॉट पर भी जाना था  मसोस कर उठना ही पड़ा। इसके बाद स्तूप पर गये। इतनी ऊँचाई पर एक तरफ पहाड़ की दीवार और दूसरी तरफ विशाल नीला आसमान जिसकी हद तय करती कंचनजंघा की चोटी। सिक्किम के आदिम जन कंचनजंघा की पूजा करते हैं इसलिए भारत की इस सबसे ऊँची चोटी पर भूटान या चीन की तरफ से ही चढ़ा जाता है। कंचनजंघा नेशनल पार्क में और इसके बेस कैंप में लोग हर नियम का बिना किसी चौकसी के पालन करते हैं। स्तूप के चारो तरफ चार विशाल सुनहरी मूर्ति और उनके बीच चार लकड़ी की नक्काशी के भित्ति चित्र थे। 
अगला पड़ाव था बतिस्ता लूप। दार्जिलिंग प्रसिद्द है अपनी टॉय ट्रेन के लिये। अंग्रेजों के ज़माने से शुरू हुई यह ट्रैन अभी भी दार्जिलिंग से सिलीगुड़ी के बीच चलती है। बतिस्ता लूप ट्रेन की दिशा बदलने के लिये एक स्थान है। सुबह साढ़े दस बजे यहाँ एक ट्रैन आती है। कोयले से चलने वाली छोटी सी छुकछुक गाड़ी जब आई हवा में कोयले की कनि बिखर गई। सबने खूब फोटो खींचे कुछ खाली डब्बे में चढ़ गये। यहाँ बेहद खूबसूरत बगीचा भी है गुनगुनी धूप खूबसूरत फूल छोटी सी रेलगाड़ी एक स्वप्नलोक सी दुनिया। सड़क के दूसरी और दो तीन रेस्टॉरेंट हैं। हम बिना नाश्ते के चल दिए थे रेस्टॉरेंट की पहली मंजिल पर कांच की दीवारों के परे बिखरे अनंत आसमान और धवल शिखर को निहारते कॉफी के घूँट भरना एक सपने के पूरा होने जैसा है। 
अगला पड़ाव था एक और मोनेस्ट्री। परिसर में छोटे छोटे बच्चे बुद्धिस्ट ड्रेस पहने खेल रहे थे। ये बच्चे यहीं रह कर अपनी शिक्षा पूरी करते हैं इसके बाद कुछ अपनी भौतिक दुनिया में वापस लौट जाते हैं और कुछ आजीवन अविवाहित रहने का फैसला कर मठ में ही रहते हैं। ये अपनी गहरी मैरून बौद्ध ड्रेस के ऊपर एक सुनहरी जैकेट पहनते हैं। हर टूरिस्ट स्पॉट के बाहर स्थानीय लोग ऊनी कपड़े मोज़े टोपी शॉल लिये नज़र आते हैं। पर्यटक ही उनकी कमाई का साधन है। पुरुष टैक्सी गाइड एजेंट जैसे काम करते हैं महिलायें व्यवस्था दुकानदारी जैसे काम संभालती हैं। 
ज़ू चिड़ियाघर और हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान दोनों एक ही कैंपस में हैं। जानवरों के प्राकृतिक आवास पहाड़ी ढलान को ज्यों का त्यों रख कर उसमे अनगढ़ सा आवास बना कर प्राकृतिक रूप दिया गया है। ऊँची नीची पहाड़ी जगह में जानवर भी जंगल सा ही महसूस करते होंगे। यहीं है हिमालयीन पर्वतारोहण संस्थान जिसमें माउंट एवेरेस्ट के पहले एक्सपिडिशन में पहने कपडे जूते उपयोग किये औजार टेंट आदि सामान रखे हैं। इन्हें देख कर मुँह आश्चर्य से खुला रह जाता है। आज तो इस दिशा में बहुत तरक्की हो गई है। मौसम बर्फ ठण्ड के अनुसार सभी साजोसामान की क्वालिटी बहुत सुधर गई है। पानी की बॉटल रस्सी खाने पीने की सुविधा गैस आदि। पर उस समय के साजो सामान को देख कर उन पर्वतारोहियों की हिम्मत दंग करती है। इस संग्रह में पर्वतारोहण की पूरी विकास यात्रा प्रभावी रूप से प्रदर्शित की गई है। समय कम था अभी रोप वे पर जाना था इसलिए जू का कुछ हिस्सा जल्दी जल्दी पार किया। 
यह पाँच किलोमीटर की रोप वे है ढाई किलोमीटर जाना ढाई आना। एक ट्रॉली में छह लोग बैठते हैं हम दो थे लाइन के आखिर में खड़े तभी वहाँ का कर्मचारी आया और हमें लाइन में सबसे आगे आने को कहा। दरअसल चार लोगों के ग्रुप के साथ बैठने के लिए दो लोग चाहिए इसलिए हमारा नंबर जल्दी आ गया। हमारे साथ थे चार लड़के उनकी बातों में कई गलत जानकारियाँ थीं जिन्हें मैंने ठीक कर दिया और फिर बातों का सिलसिला शुरू हुआ। पता चला वो स्टूडेंट्स हैं और बांग्लादेश से आये हैं। आगे जाने का कोई फिक्स प्लान नहीं है और यहाँ वहाँ से जानकारी ले रहे हैं कि आगे कहाँ जायें ? रोप वे खूबसूरत चाय के बागानों के ऊपर से गुजरता है नीचे एक स्कूल एक छोटा सा गाँव पगडण्डी जैसे रास्ते दिखते हैं। स्कूल के बाहर बच्चे खेल रहे थे लौटते हुए बच्चे उछलते कूदते घर जाते हुए दिखे। दूर तक पहाड़ों की श्रृंखला और दूर पहाड़ पर दिखता एक मंदिर एक बड़ी मूर्ति। पता चला यह जगह दक्षिण सिक्किम में है। 
यहाँ से टी स्टेट जाने के बीच में पड़ती है तेनसिंग रॉक। लगभग 30 /40 फ़ीट ऊँची एक चट्टान जिस पर माउंटेन क्लाइम्बिंग का शौक पूरा किया जा सकता है। यह अनुभव शानदार था। आखरी स्टॉप था टी स्टेट। यहाँ दूरबीन लेकर बैठे लोग दक्षिण सिक्किम की वह मूर्तियाँ और मंदिर दिखाते हैं। चाय बागान के बाहर छोटे छोटे स्टाल जहाँ चाय दालचीनी लौंग इलायची आदि मिलती है। हमने भी थोड़ा बहुत सामान लिया और वापसी में फिर मॉल रोड पर घूमते हुए सूर्यास्त देखते चहल पहल देखते रहे। यह दार्जिलिंग की आखरी शाम थी हम देर तक वहाँ बैठे रहे फिर हेस्टी टेस्टी में खाना खा कर वापस होटल आ गये। 
टैक्सी ड्राइवर टैक्सी के मालिक ही थे और शांत और हँसमुख भी। कई जानकारियाँ वो देते रहे। उन्ही से कहा कि अगले दिन सुबह हमें गंगटोक जाना है अगर कोई ड्राप आउट वाली टैक्सी हो तो बताना और रात ही उनका फोन आ गया एक टैक्सी है जो गंगटोक जा रही है पर जाम से बचने के लिए सुबह जल्दी निकलना होगा। आते हुए जाम देख चुके थे इसलिये सुबह जल्दी ही दार्जिलिंग को विदा कह दिया एक बार फिर आने का वादा करके। 
कविता वर्मा 


Tuesday, December 13, 2016

कैसे प्रकृति प्रेमी थे वे लोग


बहुत दिनों बाद अपने सफर पर फिर निकली हूँ। मैं जानती हूँ आप लोग मेरे ब्लॉग पर नियमित आते हैं अगली पोस्ट के इंतज़ार में और यही कारण अगली क़िस्त लिखने की प्रेरणा भी देता है। 
आज हम चलेंगे दार्जिलिंग की सैर पर। 
न्यू जलपाई गुड़ी से सड़क मार्ग द्वारा ही दार्जिलिंग पहुँचा जा सकता है शेयरिंग टैक्सी में आठ दस लोगों के साथ पहाड़ी रास्ते का पहला सफर करना बहुत तनाव दे रहा था। फिर पता चला जो टैक्सी दार्जिलिंग से सवारी छोड़ने आती हैं वो वापसी में कुछ कम में न्यूजलपाईगुड़ी से सवारी ले जाती हैं। उसके लिए रेलवे स्टेशन पर टैक्सी ड्राइवर से संपर्क करके उन्हें अपना नंबर दे दिया जाये तो वे खुद संपर्क कर लेते हैं। सुबह जल्दी स्टेशन पर पहुँच कर भी ऐसी गाड़ियाँ मिल जाती हैं। हमें भी एक इनोवा मिल गई जिसमे गाड़ी का मालिक और ड्राइवर वापस दार्जिलिंग जा रहे थे। 
न्यूजलपाईगुड़ी से सिलीगुड़ी होते हुए रास्ता है। सिलीगुड़ी में छोटी रेल लाइन है इसलिए न्यूजलपाईगुड़ी ही अंतिम मुख्य स्टेशन है। सिलीगुड़ी  से दार्जिलिंग का रास्ता बेहद खूबसूरत है। सड़क के दोनों ओर ऊँचे ऊँचे कतार में लगे पेड़ जिनके नीचे फर्न और दूसरे छोटे पौधों का हरा गलीचा सा बिछा हुआ है। कुछ ठन्डे मौसम का असर कुछ जमीन तक धूप ना पहुँच पाने का और कुछ दो दिन पहले हुई तेज़ बारिश का सड़क किनारे किनारे पानी की नहर सी चल रही थी। यही नमी घने पेड़ों के नीचे छोटी वनस्पति को जीवन देती है। सिलीगुड़ी  सेवक मोड़ काली मंदिर और बंगाल सफारी का रास्ता पार करते ही मिलिट्री एरिया शुरू हो जाता है। साफ सुथरी छायादार सड़क दोनों किनारे सेना की अलग अलग बटालियन के हरी टीन से बने बैरक ऑफिस कुछ रिहायशी मकान और साफसुथरे कैंपस मन को एक अलग ही अनुशासित भाव से भर देते हैं। कहीं कहीं इक्का दुक्का जवान अपने काम में मगन तो कहीं सेना के ट्रक में लदे सैन्य सामान। वातावरण में अनुशासित ख़ामोशी मन को मोह रही थी। सेना के इलाके से बाहर निकलते ही पहाड़ी इलाका शुरू हो गया। कुछ किलोमीटर की दूरी पर कई कलकल छलछल करती पहाड़ी नदियाँ सफ़ेद गोल मटोल पत्थरों के बीच से बह रही थीं तो कहीं कहीं पानी के प्रवाह ने इन पत्थरों को सूक्षम तत्व ज्ञान युक्त कर सुनहरी रेत में बदल दिया था। रास्ते में तीस्ता नदी का पुल पार किया विशाल चौड़े पाट के साथ पानी की गहराई प्रवाह को गंभीरता प्रदान कर रही थी। नदी के किनारे मानव संक्रमण से अछूते नैसर्गिक सुवास से परिपूर्ण थे 
सुबह हम लोग बगैर नाश्ता किये चल पड़े थे पहाड़ी रास्ते खाली पेट मितली आती है ड्राइवर को कहा जरा जल्दी ही कहीं रोक देना। उसने एक छोटे से गाँव के छोटे से रेस्तरां पर गाड़ी रोकी। यहाँ नाश्ता पूरी आलू की सब्जी का होता है। गरमा गरम पूरी सब्जी के बाद एक एक चाय पी कर हम बाहर सड़क पर आ गए। ट्रैफिक  बहुत ज्यादा नहीं था ठंडी हवा धूप की गर्मी को कुनकुनाहट पर रोके हुए थी। छोटा सा गाँव छोटी छोटी रोजमर्रा के सामान से भरी दुकाने पैदल स्कूल जाते बच्चे। ना कोई शोर न अफरातफरी। कितना सुकून होता है ना छोटी जगह में?
आगे रास्ता सीधी चढ़ाई वाला था एक मोड़ मुडते ही पिछली सड़क से कम से कम पंद्रह बीस फ़ीट ऊपर। जैसे जैसे ऊपर चढ़ते जा रहे थे दूर छूटता मैदान उसमे बहती तीस्ता नदी का नज़ारा और विस्तार पाता जा रहा था। सड़क के एक ओर पहाड़ और दूसरी ओर खाई। पहाड़ों से बहता पानी जिसे व्यवस्थित नाली बना कर बहने का रास्ता बनाया हुआ था। कहीं भी पानी सड़क पर बहता नहीं मिला। चट्टान पर उग आई झाड़ियों और वनस्पति की कटाई की जा रही थी ताकि वे सड़क पर ना आएं और गाड़ी चलाने को पूरी जगह मिले। नाली की सफाई कर उसमे से सूखी पत्तियाँ पत्थर निकाल कर ढेर बनाया गया था जिसे वहाँ से उठाया भी जा रहा था और यह सब हो रहा था बीच जंगल में जहाँ से बस्ती मीलों दूर थी। सच अगर इच्छा शक्ति हो प्रशासनिक क्षमता हो तो सब संभव है। 
ज्यों ज्यों ऊपर चढ़ते जा रहे थे तीस्ता क्षितिज से मिलती जा रही थी और एक मोड़ के साथ तीस्ता ओझल हो गई और दूसरी ओर धवल पर्वत शिखर अपने भव्य रूप में प्रगट हो गया जिसे देख कर पलकें झपकना भूल गईं। दो तीन दिन पहले ही तेज़ बारिश हुई थी उसके बाद आसमान एक दम साफ चमकीला नीला था उस पर हिमाच्छादित कंचनजंघा एक अलौकिक नज़ारा था। फटाफट कैमरा निकाला और धड़ाधड़ फोटो  खींचना शुरू कर दीं। इसके बाद तो दो चार छह मोड़ के बाद भी कंचनजंघा के दर्शन होते रहे तब हमने कैमरा रख कर उसे निहारने में ही भलाई समझी। 
रास्ते में कुछ टी कंपनी की प्रोसेसिंग यूनिट्स थीं दार्जिलिंग से कुछ पहले एक थोड़ा बड़ा शहर जिसे क़स्बा कहेंगे तो बेहतर होगा मिला। सड़क के किनारे एक या दो मंजिल मकान 
दार्जिलिंग शहर में घुसने से पहले ही सड़क पर जाम मिलने लगा। सड़क के एक किनारे टॉय ट्रेन की पटरियाँ दोनों तरफ दुकानें बाकी सड़क पर दोनों तरफ का ट्रैफिक। सड़क पर पैदल चलने वालों की भीड़। दार्जिलिंग करीब बीस किलोमीटर दूर था जहाँ पहुँचने में डेढ़ दो घंटे लग गये। पहाड़ को काट कर बनाई गई दीवार पर कई रबर के पाइप लगे थे रस्सी या तार से बंधे थे। पता चला पहाड़ से गिरने वाले पानी के नीचे एक रिजरवायर कोई टब या टंकी रख दी जाती है उसमे से ये पाइप घरों तक पानी पहुँचाते हैं। मतलब सबकी अपनी अपनी पानी की पाइप लाइन। 
लगभग बारह साढ़े बारह बजे हम दार्जिलिंग पहुँचे। ड्राइवर ने टैक्सी स्टैंड पर हमारा सामान उतार कर कुली के लिये कहा तो पचास बावन की उम्र की स्थूल नाटी महिला आकर खड़ी हो गई। होटल का पता बताया उसने सामान देखा और ले चलने को तैयार हो गई। भाड़ा डेढ़ सौ रुपये जो कुछ ज्यादा लगे लेकिन इससे कम में कोई तैयार नहीं था। जब चलते चलते बहुत दूर पहुँच गये और खड़ी चढ़ाई आ गई तब वही भाड़ा मुझे कम लगने लगा। मैंने उससे पूछा दिन भर में कितने चक्कर लगा लेती हो तो कहने लगी दो तीन कभी चार। वो पंद्रह बीस कुली हैं सबके नंबर बंधे हैं। जिसका नंबर होता है वही सामान ले कर जाता। कितना अच्छा समाजवादी तरीका था जो स्थानीय लोगों ने खुद ही बना लिया था। अब सुबह से अपने नम्बर के लिए स्टैंड पर नहीं बैठना था अपना नम्बर आने वाला हो तब आओ और नंबर हो जाने के बाद वापस घर। मैंने पूछा दिन भर में कितना पैसा बना लेते हो हर चक्कर के १५०/२०० रुपये के अनुसार लगभग ४००/५०० रुपये रोज़ के कमा लेते हैं। बारिश के तीन चार महीने सीजन नहीं होता तब घर बैठना पड़ता है। 
दोपहर का वक्त था लेकिन ठण्ड बहुत तेज़ थी। घुमावदार रास्ते के चक्कर सिर चकरा रहे थे भूख जोरों से लग आई थी पानी गरम होने का इंतज़ार करना भी भारी लग रहा था। तब तक कमरे की खिड़की से दिखाई देती कंचनजंघा की चोटी निहारना बेहद भला लग रहा था। होटल में वेज खाना बनाने के अलग बर्तन नहीं थे इसलिए बाहर जाना ही तय किया। दोपहर हो चुकी थी उस दिन कहीं घूमने जाना संभव नहीं था इसलिए खाना खा कर हम लोग माल रोड पर घूमते हुए चौक पर पहुँच गए। यह माल रोड के आखिर में एक बड़ी खुली खुली जगह है जिसपर एक बड़ी स्क्रीन समेत ओपन थियेटर बना है। सैलानी यहाँ बैठते चाय पीते टूरिस्म विभाग की फिल्म देखते और फोटो खिंचवाते हैं। इस चौक से थोड़े आगे एक रास्ता नीचे की ओर जाता है जिस पर आगे राजभवन और एक बहुत पुराना चर्च है। यही रास्ता आगे ज़ू तक जाता है। चर्च के गार्डन में हम बहुत देर तक बैठे रहे एक अद्भुत शांति जो पीले रंग से पुती उन मोटी मोटी दीवारों से पूरे वातावरण में झर रही थी। चर्च का विशाल ऊँचा टॉवर नीले आसमान में सिर उठाये इस शांति को आत्मसात करने का आव्हान कर रहा था। हम लोग काफी देर तक उस तिलिस्म से भौचक बैठे रहे और सोचते रहे उन लोगों की हिम्मत के बारे में जिन्होंने कई दशक पहले इन घने जंगली इलाके में सफर कर यहाँ निर्माण करवाया होगा। कितने प्रकृति प्रेमी होंगे वो लोग और प्रकृति के सानिध्य में रहने की कैसी गहरी जिजीविषा होगी उनकी। अगर वो लोग नहीं होते तो क्या आज का दार्जिलिंग आज इस स्वरुप में होता ? क्या सच में हम भारतीय प्रकृति के इसी प्रेम के चलते इतने दूर आते हैं या महज अपने दैनिक जीवन की आपाधापी से छुटकारा पाने के लिए बस अपने स्थान से भाग आते हैं। सच तो यह है कि हम जहाँ बस्तियाँ बनाते हैं वहाँ के पेड़ नदी जंगल तालाब को ही सबसे पहले नुकसान पहुँचाते हैं। चर्च से उतर कर हम लोग ओपन थियेटर पर काफी देर बैठे रहे। ठण्ड बढ़ने लगी थी लोग जाने लगे हम लोग भी उठ खड़े हुए। माल रोड की दुकानों पर स्वेटर शाल देखते कुछ खरीदा और अगले दिन घूमने जाने के लिए टैक्सी की बुकिंग करवाते हुए वापस होटल आ गए। आठ बजे तक बाजार बंद हो गया था दिन भर दौड़ती भागती हॉर्न बजाती गाड़ियाँ थम चुकी थीं। हम लोग भी उस दिन नौ बजे तक सो गए। 
कविता वर्मा


नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जी...